Monday, August 16, 2010

जश्न आज़ादी का...!


श्वेता सिंह

हम हिंदुस्तानी हैं...और इसी वजह से आज हम सबने आज़ादी का जश्न भी मनाया..जी हां..आज़ादी के 64वें वर्ष पर सबने दिल खोलकर एक-दूसरे को बधाइयां दीं, एसएमएस भेजें, और मिलते ही मुंह मीठा भी कराया. लेकिन क्या सचमुच हम आज़ाद हो गये हैं..? नहीं, दूसरे त्यौहारों की तरह स्वतंत्रता दिवस भी बस एक दिन के लिए अचानक हमारे अंदर देशभक्ति का भाव पैदा कर देता है और दिन गुजरते ही सारे जज़्बे काफूर हो जाते हैं..
कभी-कभी ऐसा लगता है आजा़दी देश को नहीं सरकार को मिली है. अगर देश आज़ाद है तो फिर सरकार और जनता के बीच इतनी गहरी खाई क्यों है? इतने सालों में सरकार और सरकारी तंत्र में कितने बदलाव आये हैं! जनता को क्या लाभ मिला है. हम कह सकते हैं कि एक विशेष तबके तक आज़ादी का जश्न सिमट कर रह गया है..या यूं कह ले कि पहले हम अंग्रेजों की गुलामी करते थे और अब अपने चुने हुए नेताओं को सलामी देने को मजबूर हैं. वो झण्डा लहराते हैं और हम तालियां बजाते हैं. हालात तब भी ऐसे ही थे और आज भी वैसे ही हैं..कोई विशेष फर्क नहीं आया है... अग्रेजों ने जो किया था हमारे नेता आज उसी राह पर चल पड़े हैं. फर्क इतना है कि अंग्रेज पैसा लूट कर इंग्लैण्ड चले गये और हमारी सरकार के दिग्गज मंत्री वो पैसा आपस में ही लूट कर हजम कर रहे हैं. बावजूद इसके कोई उनके खिलाफ बगावत करने की हिम्मत नहीं करता. कुछ दिन बावेला मचता है, शोर-शराबा होता है. कार्रवाई के नाम पर खानापूर्ति भी होती है..और फिर वही ढाक के तीन पात...नतीजा सिफर...यह सिलसिला बदस्तूर जारी है. नेता मदारी की तरह खेल दिखाता है और हम तमाशबीन की तरह चुपचाप तमाशा देखते हैं..क्या इसका कोई हल नहीं है?
जो सरकारी महकमों में बैठा है वो राजा (सरकार) और जो बाहर वो प्रजा(भारतीय), और वर्चस्व की लड़ाई आज भी जारी है. अगर ऐसा नहीं है तो देश के हर कोने में किसी भी कारण से सरकार से टकराव क्यों है. कहीं माओवाद तो कहीं आतंकवाद और कहीं महंगाई के खिलाफ लड़ाई जारी है. हर वो पहलू जिससे जनता को सीधे तौर पर मतलब है वो बिगड़ा हुआ क्यों है? सरकारी अफसर की जनता के प्रति जवादेही क्यों नहीं बनती?
हम सभी को पता है कि अगर कोई सरकारी अधिकारी मनमानी करता है तो हम उसके खिलाफ कुछ नहीं कर पाते हैं. क्योंकि सरकारी काम में विघ्न डालना जुर्म है. यह सिर्फ जनता पर लागू होता है. नेता या अफसर बेखौफ होकर घोटाले करते हैं, उन्हें किसी चीज से डरने की जरूरत नहीं है..उन्हें पता है कि उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता है!
सवाल यह है कि जब पैसा जनता का है. और उसे लेकर कोई अगर काम नहीं करता है तो उसे ना करने पर हर्जाना क्यों नहीं भुगतना पड़ता है, क्योंकि वह सरकार है और देश उसका है. जो अपने खून पैसे की कमाई "कर"(टैक्स) के रूप में चुकाती है, वो जनता बेवकूफ है, गलत है..और जो इसका अपने हिसाब से बेज़ा इस्तेमाल करता है वो सही और कुछ भी करने को आज़ाद है..बाकी सब गुलाम...आखिर हम इन मौकापरस्त नेताओं को कब एहसास करा पायेंगे कि वो अपनी मनमानी नहीं कर सकते. हमारी न्यायपालिका इतनी कमजोर क्यों है..आम आदमी जब कोई गलती करता है तो उसे फौरन उसकी सज़ा मिल जाती है, मगर ऊंचे ओहदों पर बैठे अधिकारियों और नेताओं तक कानून के हाथ नहीं पहुंच पाते हैं...उनसे जुड़े मामलों पर फैसला लेने में अदालत को वर्षों लग जाते हैं..और तब तक नेता अपनी मनमानी करता रहता है... नेता बड़े से बड़ा घोटाला करता है, पर कोई उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाता है..बेकसुरों को भी अक्सर सज़ा मिल जाती है और जो सालों-साल से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं उनके शानो-शौकत में कोई कमी नहीं आती है..महंगाई की मार झेलनी है तो सिर्फ जनता को..नेताओं को भला इतनी फुरसत कहां है जो इस बात की खबर ले कि जनता को उसकी मूलभूत सुविधाएं मिली भी या नहीं..उसकी तो उंगलियां हमेशा ही घी में डूबी रहती हैं. फिर वो आज़ादी का जश्न नहीं मनायेगा तो कौन मनायेगा..
अगर ऐसा है, तो क्यों है..? क्या हमारे पास इतना वक्त बचा है कि हम इस मुद्दे पर विचार करें. शायद नहीं. हम अपनी ज़िंदगी में इतने व्यस्त हैं कि ऐसे मुद्दों पर गौर करने का भी वक्त हमारे पास नहीं रह गया है. और यह चिंता का विषय है!
इन सब हालात में सिर्फ हम बुद्धिजीवियों की क्या ये जिम्मेवारी नहीं बनती की हम अपने परिवेश और संपर्क के उन लोगों को जागरुक करें जो शायद इसे अपनी नियति का हिस्सा मान चुके हैं! 64 साल से पहले के नेताओं ने जो तरीके अपनाये थे, वे आज भी उतने ही मजबूत हैं.. देश को संपूर्ण स्वराज की एक और आह्वान की जरूरत है!! मैं चाहूंगी कि हम सब को एक बार फिर अपने ध्वज के मान के लिए इंकलाब का नारा बुलंद करना होगा!! अगर आप इसे लेख समझ कर भी पढ़ रहे हैं तो भी अपने दिल में ही सही..कृपया दोहराइये "वन्दे मातरम्" और प्रण लीजिये खुद को आज़ाद करने का!!

Tuesday, August 10, 2010

सम्मान का संघर्ष

महिला सशक्तिकरण का मुद्दा फिर गरमाया

सम्मान का संघर्ष


श्वेता सिंह


वैश्वीकरण के इस दौर में महिलाएं आज आसमान की बुलंदियों को छू रही हैं. अपने सपनों को साकार करने के लिए वे हर मुमकिन कोशिश भी कर रही हैं. काफी हद तक उन्हें सफलता भी मिली है, पर क्या, वास्तव में महिलाओं को उनका मुकाम हासिल हुआ है? घर की दहलीज पार करके वह पुरुषों की बराबरी करने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर काम भी कर रही है. उसने उन क्षेत्रों में भी अपनी छाप छोड़ी है, जहां पहले सिर्फ पुरुषों का ही वर्चस्व था. राजनीति के दाव-पेंच हो, या व्यापार जगत, या फिर खेल का मैदान, महिलाओं ने आज हर क्षेत्र में अपनी जगह बना ली है. यही वजह है, कि समय-समय पर महिला सशक्तिकरण का मुद्दा भी सामने आता रहता है. लेकिन! बहस और चर्चाओं के दौर में यह विषय एक बार फिर ज्वलंत हो उठा है. हमारे सामने कई सवाल भी बड़े आकार में आ खड़े हुए हैं, और मेरे अंदर का इंसान सोचने पर मजबूर है.
आखिर ये महिला सशक्तिकरण है क्या ?....आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो जाना! क्या महिलाओं को समाज में उनकी जगह मिल जायेगी? वह पुरुषों को अपने वज़ूद का अहसास करा पायेगी? नहीं, इस तरह औरत-आदमी के खेल में हम इंसान होने से चूक जायेंगे और इससे महिलाओं को समाज में अपनी पैठ बनाने में कामयाबी नहीं मिल सकती. जिस आज़ादी को हासिल करने के लिए महिलाओं ने अपना घर छोड़ा है, क्या उसे पैसों के बल पर हासिल किया जा सकता है? क्या पैसा उस आज़ादी का अहसास करा देता है? नहीं, सच्चाई ऐसी नहीं है. पैसों के पीछे भागते-भागते हम पर सामाजिकता से ज्यादा बाज़ारवाद हावी हो गया है, लेकिन फिर भी औरत वहीं खड़ी है, और इसका खामियाजा भी महिलाओं को ही भुगतना पड़ रहा है. क्योंकि आज भी महिला और पुरुष एक दूसरे के लिए सिर्फ भोग की वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं हैं. और जब ये किसी भी तरफ से हावी होता है तो कमजोड़ कड़ी टूट जाती है, यानी जिम्मेवार सिर्फ औरत! इससे ज्यादा और कुछ नहीं. इसलिए जरूरत हमारे सोच में बदलाव की है. भारत ही नहीं दुनिया के किसी भी दूसरे देश में महिलाओं की स्थिति कमोबेश एक ही है.
आए दिन अखबार के पन्नों और तमाम न्यूज़ चैनलों पर महिलाओं के साथ अत्याचार और भेदभाव की खबरें सूर्खियों में रहती हैं, हमें यह सोचने पर मजबूर भी करती हैं, क्या महिलाओं को सचमुच उनका अधिकार मिला है? क्या वास्तव में वो निडर होकर जीने की कल्पना कर सकती है? क्या आज भी वह कदम-कदम पर असुरक्षा की भावना लिए हुए नहीं जी रही है? कि, न जाने अगले पल वह कहां और कैसी परिस्थिति में हो? वह अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त क्यों नहीं हो पायी है? ये डर आदमी और औरत में बराबर है. बेटियां और बहुएं तो अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं. आज भी दहेज हत्या, यौन उत्पीड़न, बलात्कार के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. और जो इन वारदातों को अंजाम देते हैं वे और भी ज्यादा सहमे हुए हैं. इस घटना के घातक परिणामों से वाकिफ होने की वजह से वे भ्रूण हत्या, बाल विवाह के रास्ते पर ही चल देते हैं. ये डर जितना फैल रहा है, समस्या उतनी ही गंभीर होती जा रही है. इस पर अब तक लगाम नहीं कसा जा सका है और ना ही कोई सोच कायम हुई है. फिर हम आखिर किस महिला सशक्तिकरण की बातें करते हैं. किस आधार पर राजनेता यह दावा करते हैं कि आधी आबादी को उनका हक मिल गया है.
सच तो यह है कि महिला सशक्तिकरण की कल्पना करना उस मुराद की तरह है जिसकी पूरी होने की उम्मीद बहुत कम नज़र आती है क्योंकि हम क्या चाहते हैं? यह अब तक तय नहीं कर पाये हैं. जब तक इंसान अपने मनोरंजन के लिए विपरीत लिंगों का इस्तेमाल करने की मानसिकता नहीं बदलेगा तब तक औरतें यूं ही जुल्म का शिकार होती रहेंगी और हज़ारों वर्षों की ये सोच बिना किसी मजबूत इरादे के नहीं बदलने वाली. इस पुरुष प्रधान समाज में वह घुट-घुट कर जीने को मजबूर होगी क्योंकि वो महिलाएं जो कालांतर में इस सामाजिकता में ढल चुकी हैं, इसकी वकालत भी करेंगी. आज भी महिलाएं पुरुषों के आगे घुटने टेकने को मजबूर है. यही उनका धर्म बन चुका है. हर कदम पर उन्हें यह महसूस कराया जाता है कि उसे अपनी हद में रहना चाहिए. और यह हद तय करने का जिम्मा ले रखा है समाज के उन ठेकेदारों ने, जो इस दमन के अधिनायक हैं.
इस सामाजिक परिदृश्य में हम कह सकते हैं कि महिलाएं आज भी अबला ही हैं. उसे सबला होने में अभी और वक्त लगेगा और इसके लिए, इंसान को अपनी सामाजिक सोच बदलनी होगी. व्यभिचार का दौर थमने के बाद ही महिलाएं सुकून की ज़िंदगी जी पायेंगी. इसके लिए हम पूरी तरह से पुरुषों को ही दोषी नहीं ठहरा सकते हैं. इसकी जिम्मेवार खुद महिलाएं भी हैं. ऐसी महिलाएं भी कम नहीं हैं जो अपने फायदे के लिए या कभी-कभार सिर्फ मनोरंजन के लिए भी गैर मर्दों से रिश्ता बनाने से नहीं चूकती हैं. यही वजह है कि आज भारत में भी लिव-इन रिलेशनशिप की जड़ें मजबूत हो चुकी हैं. विवाहेतर संबंधों का चलन बढ़ गया है. इसकी वजह से तलाक के मामलों में भी काफी इजाफा हो रहा है. इस प्रकार की कुछ समस्याएं अभी छोटी हैं लेकिन इनके आकार के बदलते ही हम और बड़े नैतिक पतन की ओर बढ़ जायेंगे. अब! अगर हम इसके लिए पाश्चात्य संस्कृति को दोष दें तो गलत होगा, क्योंकि खुद हम जिम्मेवार हैं इस पतन के लिए. कुल मिलाकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जब तक हम अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक समाज में महिलाओं को अपनी जगह नहीं मिल सकती.

Saturday, July 10, 2010

मार पर वार



श्वेतप्रिया

बच्चों से जुड़ा हर मुद्दा अपने आप में संवेदनशील होता है और ऐसे में अगर उनके साथ कुछ बुरा हुआ हो तो मामला वैसे ही गंभीर हो जाता है. हम सभी अपने बच्चों को लाड-प्यार से पालते हैं, उनकी मुस्कराहट पर अपनी जान छिड़कते हैं. हम इसका पूरा ख्याल रखते हैं कि उनको किसी तरह की तकलीफ न हो. घर में अच्छी परवरिश और स्कूल में अच्छी शिक्षा दिलाना हमारी प्राथमिकताओं में शामिल है. इऩ दिनों जो खबर सूर्खियों में है, उससे हमारा मन आशंकित हो गया है. स्कूल में अनुशासन के नाम पर बच्चों को जिस तरह से सज़ा दी जा रही है, कहीं वह उनके बचपन को कुंठाग्रस्त तो नहीं बना रहा है. हाल ही में कोलकाता के एक नामी-गिरामी स्कूल में प्रिंसिपल द्वारा छात्र को बेंत से मारने और उस छात्र के आत्महत्या कर लेने के मामले ने काफी तूल पकड़ रखा है. शिक्षक ने बेंत क्या मारी, देश भर में यह बहस का मुद्दा बन गया है कि आखिर स्कूलों में बच्चों को शारीरिक दंड देना कितना सही है. मीडिया ने भी मार पर वार शुरू कर दिया है. शायद ही कोई अखबार या न्यूज़ चैनल होगा जिसने इस मुद्दे को न छुआ हो. इस वजह से एक नहीं कई सवाल खड़े हो गये हैं. घर से बाहर बच्चे कितने सुरक्षित हैं, स्कूलों में उनका ढंग से ध्यान रखा भी जा रहा है या नहीं. अनुशासित करने के लिए शारीरिक दंड देकर मासूम बच्चों को प्रताड़ित किया जाना कहां तक उचित है.
कुछ मामलों में, खासकर गांव और कस्बों के स्कूलों में बच्चों को अनुशासित रखने के लिए शिक्षक अक्सर डण्डे का इस्तेमाल करते हैं लेकिन देखा गया है कि बड़े स्कूलों में भी ऐसा होता है क्योंकि वे सोचते हैं कि वे हमारे बच्चों के साथ कुछ भी कर सकते हैं और हम उनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठायेंगे. ऐसा नहीं है कि पहली बार किसी शिक्षक ने बेंत से बच्चे पर काबू पाने की कोशश की है. पर हां, इतना बावेला पहली बार मचा है. अब तक बच्चा हो या अभिभावक न चाहते हुए भी स्कूल प्रशासन द्वारा की जा रही मनमानियों के खिलाफ आवाज नहीं उठाते थे, पर धीरे-धीरे जागरुकता फैल रही है. लोग गलत चीजों के खिलाफ मुखर होने लगे हैं. बात इतनी बिगड़ने पर भी ला मार्टिनियर, कलकत्ता ने इस प्रथा की क्रूरता को नहीं समझा है. स्कूल प्रशासन का मानना है कि उनका रोवनजीत की आत्महत्या से कोई लेना देना नहीं है. हालांकि अब स्कूल में शारीरिक दंड को प्रतिबंधित कर दिया गया है.नये नियम के मुताबिक अगर कोई शिक्षक बच्चे को प्रताड़ित करने का दोषी पाया जाता है तो उसे मुअत्तल किया जा सकता है, उसकी वेतलवृद्धि को रोका जा सकता है और उसके पद को कम भी किया जा सकता है, अगर हालात ज्यादा ही बदतर हुए तो उस शिक्षक को स्कूल से निकाला भी जा सकता है. पर क्या यह निश्चित है कि कोई शिक्षक अब इस स्कूल में बच्चे पर हाथ उठाता है तो उसे स्कूल से निकाल दिया जायेगा, शायद नहीं.
सुप्रीम कोर्ट ने दस साल पहले ही शारीरिक दंड पर रोक लगा दी थी. ऐसा करते हुए कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि शिक्षकों द्वारा बच्चों को दण्ड देना गलत है. यूरोपीय देशों और अमरीका में अब शारीरिक दंड नहीं दिया जाता है. हां, अतीत में वहां भी ऐसा किया जाता था, पर अब नहीं. सभ्य समाज में ऐसी कुरीतियों से अब किनारा किया जाने लगा है. फिर भारत में यह प्रथा अब भी क्यों प्रचलित है. यह सवाल हमारे सामने मुंह बाये खड़ा है. वैसे तो हम खुद को 21वीं सदी में आगे बढ़ता बताते हैं पर अब भी ऐसे कई मामले हैं जो हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या वाकई में हम आगे बढ़ रहे हैं.
अग्रेजी में एक कहावत है, द चाइल्ड इज़ द फादर ऑफ मैन. बच्चों के भी अधिकार हैं, हम उनकी अनदेखी नहीं कर सकते. उन्हें अनुशासित करने के लिए हम छड़ी उठाने में परहेज नहीं करते हैं पर क्या बेंत की मार से हम बच्चों को अनुशासित कर सकते हैं.अगर इसकी कोई गारंटी नहीं है तो क्यों न हम बच्चों को अनुशासित करने के लिए कुछ बेहतर तरीकों को अपनायें.
आज ज़िंदगी इतनी फास्ट हो गयी है. हर क्षेत्र में इतनी चुनौतियां है कि उसके साथ ताल मिलाने के लिए हर अभिभावक अपने बच्चे को अच्छी से अच्छी तालीम दिलाने की कोशिश में लगा हुआ है. वह हर चीज में अपने बच्चे को अव्वल नंबर पर देखना चाहता है. इसी जद्दोजहद में वह बड़े से बड़े स्कूल में डोनेशन के नाम पर मोटी रकम खर्च करके अपने बच्चे का एडमिशन कराता है और कहीं न कहीं खामियाजा बच्चे को भुगतना पड़ता है. अधिकतर मां-बाप इस डर से चुप्पी साधे रहते हैं कि उनके बच्चे को स्कूल से न निकाल दिया जाए. अच्छी शिक्षा के नाम पर बड़े-बड़े स्कूल कभी-कभार बच्चों के साथ गलत व्यवहार भी कर जाते हैं. तकरीबन हर स्कूल में शारीरिक दंड दिया जाता है और ला मार्टिनियर में भी यही चल रहा था. हालांकि अब यह बीते जमाने की बात हो गयी है कि बच्चे को अनुशासित करना है तो डंडे का सहारा लो. मगर भारत में ऐसे स्कूलों की कमी नहीं है जो बच्चों को अनुशासित रखने के लिए आज भी शारीरिक दंड देने से परहेज नहीं करते हैं. बदलते वक्त के साथ हम जिस तरह से बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए प्रतिबद्ध हैं, उसी तरह हमें यह भी देखना होगा कि बच्चों की सुरक्षा में कोताही न बरती जाये और कानून का सही ढंग से पालन हो.
देश भर में हज़ारों स्कूलों में आज शारीरिक दंड दिया जाता है. छोटे-छोटे बच्चों को अपनी पीठ पर भारी-भारी बस्ता ढोकर ले जाना होता है फिर भी छोटी-छोटी बातों के लिए जैसे- मोजे और जूते अगर मेल न खाते हों, जूते पर पलिश न लगी हो या जूते की लेस ठीक से न बंधी हो. मां-बाप कई बार बच्चों को टिफिन देने के लिए कॉनवेंट स्कूल के गेट के बाहर खड़े रहते हैं पर उन्हें अंदर नहीं जाने दिया जाता है. होमवर्क पूरा न करने पर बच्चों को सारे दिन खड़ा रखा जाता है. कई बार घुटनों के बल बैठकर उन्हें अपना काम पूरा करने को मजबूर किया जाता है. गलती करने पर बेंच पर खड़े कराना या हाथ उठाकर घंटों खड़े रहने की सजा दी जाती है. सज़ा से कुछ देर के लिए बच्चों को अऩुशासन में तो रखा जा सकता है लेकिन इस तरह किसी विषय में उसकी समझ को विकसित नहीं किया जा सकता. अगर लम्बे समय तक बच्चों को शारीरिक रुप से प्रताड़ित किया जाता है तो आगे चलकर वे हिंसक हो जाते हैं. इस तरह की सजा से बच्चों में सुधार नहीं होता बल्कि उनमें आक्रोश ही बढ़ता देखा गया है. ऐसे बच्चे बड़े होकर अपने बच्चों और दोस्तों तक को शारीरिक रूप से प्रताड़ित करते हैं. वे यह समझने लगते हैं कि हिंसा से ही किसी चीज पर काबू पाया जा सकता है. इस तरह अपने से कमजोर पर हावी होने में उन्हें खुशी का अहसास भी होता है. इसलिए वक्त रहते सचेत होने की जरूरत है. अगर हम किसी बच्चे की बात को नहीं सुनते, उसकी भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं करते तब उसके मन में धीरे-धीरे स्कूल और समाज के लिए नफरत पैदा होने लगती है. आगे चलकर वह एंग्री यंग मैन का भी रूप ले सकता है, जो नुकसानदेह साबित हो सकता है.
शारीरिक दंड की वजह से बच्चों का विकास सही ढंग से नहीं हो पाता और यह कई बार उन्हें असामाजिक भी बनाता है, इसलिए जरूरी है कि अभिभावक और शिक्षक सभी बच्चों के मन को समझें और उनकी आजादी, निजता और आत्मसम्मान का पूरा ख्याल रखें.

Friday, May 14, 2010

अब परिवार की बारी ...

अब परिवार की बारी ....

और अब बारी है, परिवार की...। जी हाँ, आज जिस रफ्तार से हम अपनी जिंदगी जी रहे हैं, उसमें परिवार के लिए तो क्या, खुद अपने लिए भी सुकुन के दो पल निकाल पाना मुश्किल होता जा रहा है। इससे पहले कि हम अपने वजूद की तरह परिवार के अस्तित्व को भी भूला बैठें। चलिए, हम मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय परिवार दिवस मनाते हैं। चौंकिए मत, हालात ही कुछ ऐसे बन गए हैं कि इस हाइटेक जमाने में हम फेसबुक पर चैट करना तो नहीं भूलते , बारी-बारी से मोबाइल पर मैसेज और इमेल चेक करना भी याद रखते हैं। भूलते हैं, तो सिर्फ अपने परिवार को। हममें से अधिकतर लोगों को अपने घर के सभी सदस्यों के जन्मदिन की तारीख भी याद नहीं होगी, अगर अब भी हमने अपने परिवार की सुध नहीं ली तो हालात बदतर हो सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र ने 1994 को अऩ्तर्राष्ट्रीय परिवार वर्ष घोषित किया था। बदलते सामाजिक परिदृश्यों को ध्यान में रखते हुए हर साल 15 मई को अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस मनाया जाने लगा है। 1995 से यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। इस दिन पूरे विश्व में परिवार की महत्ता समझने के लिए स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यशालाएं, सेमिनार और सभाओं का आयोजन किया जा रहा है। पूरे विश्व में लोगों के बीच परिवार की अहमियत जाहिर करने के लिए कई आयोजन किये जा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि इस दिन के लिए जिस प्रतीक चिन्ह को चुना गया है, उसमें हरे रंग के एक गोल घेरे के बीचों बीच एक दिल और घर अंकित किया गया है। इससे साफ जाहिर होता है कि किसी भी समाज का केंद्र परिवार ही होता है। परिवार ही हर उम्र के लोगों को सुकून पहुँचाता है।
परिवार एक ऐसा अहम संगठन है जिसे हम चाह कर भी नजरंदाज नहीं कर सकते । पूरे विश्व में समाज की धुरी परिवार पर ही टिकी है। परिवार की एकजुटता आपसी सदभाव और खून के रिश्ते से प्रगाढ़ होती है। हर बच्चा अपने परिवार से ही सीखता है। परिवार ही मिट्टी के ढांचे की तरह कोमल बच्चे को समाज के तौर तरीकों से वाकिफ कराता है और पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरा का वहन करने का जज्बा भर देता है। परिवार ही समाज का केन्द्र होता है पर आज परिवार की जगह व्यक्ति विशेष ने ले ली है। धीरे-धीरे पूरब के लोग पश्चिमी सभ्यता के ढर्रे पर चलने लगे हैं। संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार ने ले ली है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में हर कोई छोटा परिवार सुखी परिवार को अपनाते हुए परिवार नियोजन को अहमियत दे रहा है। सामाजिक सरोकार में किसी की दिलचस्पी नहीं रह गयी है क्योंकि हर कोई अपनी जिंदगी में मशरूफ है। इससे पहले कि हर रिश्ते की अहमियत हमें फलां दिवस मनाने के बाद याद आए। बेहतर होगा कि हम अपने और परिवार के लिए कुछ समय निकालें। एक संग गुजारे गये पल हमें जिंदगी भर साथ रहने के लिए प्रेरित करेंगे और जिंदगी में नयी खुशियाँ भर देंगे। । हम भूल कर भी एक दूसरे की अनदेखी नहीं कर पायेंगे।