Saturday, July 10, 2010

मार पर वार



श्वेतप्रिया

बच्चों से जुड़ा हर मुद्दा अपने आप में संवेदनशील होता है और ऐसे में अगर उनके साथ कुछ बुरा हुआ हो तो मामला वैसे ही गंभीर हो जाता है. हम सभी अपने बच्चों को लाड-प्यार से पालते हैं, उनकी मुस्कराहट पर अपनी जान छिड़कते हैं. हम इसका पूरा ख्याल रखते हैं कि उनको किसी तरह की तकलीफ न हो. घर में अच्छी परवरिश और स्कूल में अच्छी शिक्षा दिलाना हमारी प्राथमिकताओं में शामिल है. इऩ दिनों जो खबर सूर्खियों में है, उससे हमारा मन आशंकित हो गया है. स्कूल में अनुशासन के नाम पर बच्चों को जिस तरह से सज़ा दी जा रही है, कहीं वह उनके बचपन को कुंठाग्रस्त तो नहीं बना रहा है. हाल ही में कोलकाता के एक नामी-गिरामी स्कूल में प्रिंसिपल द्वारा छात्र को बेंत से मारने और उस छात्र के आत्महत्या कर लेने के मामले ने काफी तूल पकड़ रखा है. शिक्षक ने बेंत क्या मारी, देश भर में यह बहस का मुद्दा बन गया है कि आखिर स्कूलों में बच्चों को शारीरिक दंड देना कितना सही है. मीडिया ने भी मार पर वार शुरू कर दिया है. शायद ही कोई अखबार या न्यूज़ चैनल होगा जिसने इस मुद्दे को न छुआ हो. इस वजह से एक नहीं कई सवाल खड़े हो गये हैं. घर से बाहर बच्चे कितने सुरक्षित हैं, स्कूलों में उनका ढंग से ध्यान रखा भी जा रहा है या नहीं. अनुशासित करने के लिए शारीरिक दंड देकर मासूम बच्चों को प्रताड़ित किया जाना कहां तक उचित है.
कुछ मामलों में, खासकर गांव और कस्बों के स्कूलों में बच्चों को अनुशासित रखने के लिए शिक्षक अक्सर डण्डे का इस्तेमाल करते हैं लेकिन देखा गया है कि बड़े स्कूलों में भी ऐसा होता है क्योंकि वे सोचते हैं कि वे हमारे बच्चों के साथ कुछ भी कर सकते हैं और हम उनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठायेंगे. ऐसा नहीं है कि पहली बार किसी शिक्षक ने बेंत से बच्चे पर काबू पाने की कोशश की है. पर हां, इतना बावेला पहली बार मचा है. अब तक बच्चा हो या अभिभावक न चाहते हुए भी स्कूल प्रशासन द्वारा की जा रही मनमानियों के खिलाफ आवाज नहीं उठाते थे, पर धीरे-धीरे जागरुकता फैल रही है. लोग गलत चीजों के खिलाफ मुखर होने लगे हैं. बात इतनी बिगड़ने पर भी ला मार्टिनियर, कलकत्ता ने इस प्रथा की क्रूरता को नहीं समझा है. स्कूल प्रशासन का मानना है कि उनका रोवनजीत की आत्महत्या से कोई लेना देना नहीं है. हालांकि अब स्कूल में शारीरिक दंड को प्रतिबंधित कर दिया गया है.नये नियम के मुताबिक अगर कोई शिक्षक बच्चे को प्रताड़ित करने का दोषी पाया जाता है तो उसे मुअत्तल किया जा सकता है, उसकी वेतलवृद्धि को रोका जा सकता है और उसके पद को कम भी किया जा सकता है, अगर हालात ज्यादा ही बदतर हुए तो उस शिक्षक को स्कूल से निकाला भी जा सकता है. पर क्या यह निश्चित है कि कोई शिक्षक अब इस स्कूल में बच्चे पर हाथ उठाता है तो उसे स्कूल से निकाल दिया जायेगा, शायद नहीं.
सुप्रीम कोर्ट ने दस साल पहले ही शारीरिक दंड पर रोक लगा दी थी. ऐसा करते हुए कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि शिक्षकों द्वारा बच्चों को दण्ड देना गलत है. यूरोपीय देशों और अमरीका में अब शारीरिक दंड नहीं दिया जाता है. हां, अतीत में वहां भी ऐसा किया जाता था, पर अब नहीं. सभ्य समाज में ऐसी कुरीतियों से अब किनारा किया जाने लगा है. फिर भारत में यह प्रथा अब भी क्यों प्रचलित है. यह सवाल हमारे सामने मुंह बाये खड़ा है. वैसे तो हम खुद को 21वीं सदी में आगे बढ़ता बताते हैं पर अब भी ऐसे कई मामले हैं जो हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या वाकई में हम आगे बढ़ रहे हैं.
अग्रेजी में एक कहावत है, द चाइल्ड इज़ द फादर ऑफ मैन. बच्चों के भी अधिकार हैं, हम उनकी अनदेखी नहीं कर सकते. उन्हें अनुशासित करने के लिए हम छड़ी उठाने में परहेज नहीं करते हैं पर क्या बेंत की मार से हम बच्चों को अनुशासित कर सकते हैं.अगर इसकी कोई गारंटी नहीं है तो क्यों न हम बच्चों को अनुशासित करने के लिए कुछ बेहतर तरीकों को अपनायें.
आज ज़िंदगी इतनी फास्ट हो गयी है. हर क्षेत्र में इतनी चुनौतियां है कि उसके साथ ताल मिलाने के लिए हर अभिभावक अपने बच्चे को अच्छी से अच्छी तालीम दिलाने की कोशिश में लगा हुआ है. वह हर चीज में अपने बच्चे को अव्वल नंबर पर देखना चाहता है. इसी जद्दोजहद में वह बड़े से बड़े स्कूल में डोनेशन के नाम पर मोटी रकम खर्च करके अपने बच्चे का एडमिशन कराता है और कहीं न कहीं खामियाजा बच्चे को भुगतना पड़ता है. अधिकतर मां-बाप इस डर से चुप्पी साधे रहते हैं कि उनके बच्चे को स्कूल से न निकाल दिया जाए. अच्छी शिक्षा के नाम पर बड़े-बड़े स्कूल कभी-कभार बच्चों के साथ गलत व्यवहार भी कर जाते हैं. तकरीबन हर स्कूल में शारीरिक दंड दिया जाता है और ला मार्टिनियर में भी यही चल रहा था. हालांकि अब यह बीते जमाने की बात हो गयी है कि बच्चे को अनुशासित करना है तो डंडे का सहारा लो. मगर भारत में ऐसे स्कूलों की कमी नहीं है जो बच्चों को अनुशासित रखने के लिए आज भी शारीरिक दंड देने से परहेज नहीं करते हैं. बदलते वक्त के साथ हम जिस तरह से बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए प्रतिबद्ध हैं, उसी तरह हमें यह भी देखना होगा कि बच्चों की सुरक्षा में कोताही न बरती जाये और कानून का सही ढंग से पालन हो.
देश भर में हज़ारों स्कूलों में आज शारीरिक दंड दिया जाता है. छोटे-छोटे बच्चों को अपनी पीठ पर भारी-भारी बस्ता ढोकर ले जाना होता है फिर भी छोटी-छोटी बातों के लिए जैसे- मोजे और जूते अगर मेल न खाते हों, जूते पर पलिश न लगी हो या जूते की लेस ठीक से न बंधी हो. मां-बाप कई बार बच्चों को टिफिन देने के लिए कॉनवेंट स्कूल के गेट के बाहर खड़े रहते हैं पर उन्हें अंदर नहीं जाने दिया जाता है. होमवर्क पूरा न करने पर बच्चों को सारे दिन खड़ा रखा जाता है. कई बार घुटनों के बल बैठकर उन्हें अपना काम पूरा करने को मजबूर किया जाता है. गलती करने पर बेंच पर खड़े कराना या हाथ उठाकर घंटों खड़े रहने की सजा दी जाती है. सज़ा से कुछ देर के लिए बच्चों को अऩुशासन में तो रखा जा सकता है लेकिन इस तरह किसी विषय में उसकी समझ को विकसित नहीं किया जा सकता. अगर लम्बे समय तक बच्चों को शारीरिक रुप से प्रताड़ित किया जाता है तो आगे चलकर वे हिंसक हो जाते हैं. इस तरह की सजा से बच्चों में सुधार नहीं होता बल्कि उनमें आक्रोश ही बढ़ता देखा गया है. ऐसे बच्चे बड़े होकर अपने बच्चों और दोस्तों तक को शारीरिक रूप से प्रताड़ित करते हैं. वे यह समझने लगते हैं कि हिंसा से ही किसी चीज पर काबू पाया जा सकता है. इस तरह अपने से कमजोर पर हावी होने में उन्हें खुशी का अहसास भी होता है. इसलिए वक्त रहते सचेत होने की जरूरत है. अगर हम किसी बच्चे की बात को नहीं सुनते, उसकी भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं करते तब उसके मन में धीरे-धीरे स्कूल और समाज के लिए नफरत पैदा होने लगती है. आगे चलकर वह एंग्री यंग मैन का भी रूप ले सकता है, जो नुकसानदेह साबित हो सकता है.
शारीरिक दंड की वजह से बच्चों का विकास सही ढंग से नहीं हो पाता और यह कई बार उन्हें असामाजिक भी बनाता है, इसलिए जरूरी है कि अभिभावक और शिक्षक सभी बच्चों के मन को समझें और उनकी आजादी, निजता और आत्मसम्मान का पूरा ख्याल रखें.